परीक्षा भारतीय चिकित्सा विज्ञान की भी

परीक्षा भारतीय चिकित्सा विज्ञान की भी

आलोक मेहता

कोरोना वायरस के कहर के बीच राज्य सभा में भारतीय चिकित्सा आयुर्वेद और होम्योपेथ के लिए आयोग गठन के विधेयकों पर सार्थक चर्चा देखने सुनने को मिली। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आजकल मीडिया में गंभीर संसदीय विषयों पर हुई बहस का कवरेज नहीं के बराबर होता है। यह देखकर अच्छा लगा कि चिकित्सा और स्वास्थ्‍य के मुद्दे पर बहस के दौरान हंगामे, आरोप प्रत्यारोप के बजाय नई बातें और सहमतियां दिखाई दी। खासकर भाजपा के स्वामियों - साधु संतों के दावों पर आपत्तियां उठाने या मजाक बनाने वाले प्रतिपक्ष के सांसदों ने एक कदम आगे बढ़कर भारतीय आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, होम्योपेथ के पक्ष में तथ्यों के साथ तर्क रखे। अपनी चिकित्सा प्रणाली पर समुचित ध्यान नहीं दिए जाने, उसकी शिक्षा - प्रशिक्षण की कमियों पर भी चिंता व्यक्त की।

आयुर्वेद और होम्योपेथ के लिए नए आयोगों के गठन पर भाजपा के सुधांशु त्रिवेदी तथा कांग्रेस के ऑस्कर फर्नांडीस के प्रामाणिक तर्क बेहद दिलचस्प थे। ऑस्कर तो एक कदम आगे दिखे। वह राजीव, सोनिया, राहुल गांधी के बहुत नजदीकी सहयोगी रहे हैं और उनके साथी नेता भाजपा की कई मान्यताओं का मजाक उड़ाते रहते हैं। ताजा हमला गौ मूत्र को लेकर रहा है, लेकिन ऑस्कर साहेब ने तो यह तक कहा कि उनके एक परिचित का तो गौ मूत्र से कैंसर का इलाज सफल रहा। अपने स्वयं के लिए उन्होंने दावा किया कि जब डॉक्टरों ने उन्हें घुटना बदलने के लिए आपरेशन की सलाह दे दी थी, तब उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा योग और आयुर्वेद के बल पर घुटना पूरी तरह ठीक कर लिया। जहां वह एक सीढ़ी नहीं चढ़ पाते थे, अब सीढ़ियों पर चढ़ने के अलावा दौड़ भी लगा लेते हैं और कठिन वज्रासन भी कर लेते हैं। उनका यह दर्द जरूर है कि अपने ही देश में भारतीय चिकित्सा विज्ञान के उपयोग, संरक्षण के लिए पर्याप्त साधन सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।

इस सन्दर्भ में मुझे एक व्यक्तिगत अनुभव का जिक्र करना भी आवश्यक लगता है। यह घटना 1981 की है। उस समय मैं जर्मनी के कोलोन शहर में वॉइस ऑफ़ जर्मनी रेडियो के हिंदी विभाग में संपादक था। जर्मनी में दो वर्ष हो चुके थे। अचानक एक दिन गले से खाना निगलने में तकलीफ होने लगी और समस्‍या दिनोंदिन बढ़ने लगी। सामान्य फिजिशयन डॉक्टर ने कोलोन के प्रमुख चिकित्सा संस्थान में इलाज के लिए भेज दिया। प्रारंभिक परीक्षण के बाद डॉक्टरों ने मुझे भर्ती करने का फैसला किया और हर सुबह शाम पचासों परीक्षण शुरू कर दिए। तब भी जर्मनी के उस सर्वोच्च चिकित्सा संस्थान में अत्याधुनिक उपकरण थे। सारी जांच पड़ताल परीक्षण के बावजूद डॉक्टर रोग का असली कारण समझ नहीं पा रहे थे। भर्ती के साथ ही उन्होंने मुंह से कुछ भी खाने पीने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था और चार पांच नलियों से पानी, खून दे रहे थे। भर्ती के समय उन्हें खाने की नली में दो छेद दिख रहे थे, लेकिन हफ्ते में नियंत्रण के बजाय छेद की संख्‍या छह-सात हो गई थी। एक सप्ताह में प्रमुख डॉक्टर ने ऑपरेशन की आवश्यकता बताई तथा मेरी पत्नी और मित्र साथी को सूचित किया कि ऑपरेशन में भी जान बचने की गुंजाइश मात्र एक प्रतिशत है। इस कारण संस्थान के निदेशक डॉक्टर अनुमति देने से हिचकिचा रहे हैं और मरीज को बताकर उसकी लिखित स्वीकृति भी जरूरी है। तब मैंने दिल्ली में अपने प्रिय और वरिष्ठ संपादकों मनोहर श्याम जोशी तथा कन्हैयालाल नंदनजी को अंतिम प्रणाम जैसा पत्र लिखकर यह भी सलाह मांगी कि ऐसी स्थिति में भारत आकर क्या इलाज हो सकेगा और अभी तो यात्रा की अनुमति डॉक्टर भी नहीं दे रहे। हां, मैंने संस्थान के डॉक्टरों से यही आग्रह किया कि मुझे ऑपरेशन के बिना घर जाने की इजाजत दी जाए। इस तरह 15 दिन के बाद मेरे लिखित आवेदन पर बड़ी मुश्किल से संस्थान से बाहर निकलकर आया। इधर नंदनजी ने प्रसिद्ध वैद्य बृहस्‍पति देव त्रिगुणाजी से सलाह लेकर कुछ आयुर्वेदिक दवाइयां कोलोन भिजवाई। दवाई से एक सप्ताह बाद ही सूप और तरल खद्यान्न निगलना शुरू हुआ। दस दिन बाद संस्थान में फिर परीक्षण के लिए जाने पर डॉक्टर भी आश्चर्य चकित हो गए जब मशीन में दिखा कि मुंह की नली से छेद गायब हैं। धीरे-धीरे जीवन सामान्य हो गया और फिर कभी ऐसी तकलीफ नहीं हुई।

बहरहाल हम जैसे हजारों लोगों के अच्छे या यदा-कदा ख़राब अनुभव हो सकते हैं। लेकिन यह तो प्रामाणिक तथ्य है कि दुनिया में चिकित्सा आधारित व्यवस्था है, जबकि आयुर्वेद आयु और जीवनसंरक्षण संवर्धन वाली प्रणाली है। चरक और धन्वतरी द्वारा सैकड़ों वर्षों पहले जड़ी-बूटियों वनस्पति फूल पौधों से औषधियों को खोजा, लिखा गया। लगभग 1100 रोगों, 180 तरह के परीक्षण, अनेकानेक औषधियों तथा सर्जरी तक का ज्ञान भरा हुआ है। आज भी तक्षशिला (पाकिस्तान) के एक संग्रहालय में दूसरी शताब्दी में आयुर्वेद के सर्जरी संबधी पुरातत्वीय प्रमाण देखे जा सकते हैं। एक ब्रिटिश विशेषज्ञ ने 1794 में अपने देश की पत्रिका में भारतीय चिकित्सा, सर्जरी की सफलता का उल्लेख किया था। मजेदार बात यह है कि आयुर्वेद ही नहीं, सामान्य जीवन के लिए आवश्यक अपने नीम, हल्दी, तुलसी के पेटेंट के लिए पिछले वर्षों के दौरान हमें अंतरराष्‍ट्रीय अदालतों में लड़ना पड़ा। असल में हथियारों की तरह दवाइयों, अत्याधुनिक चिकित्सा उपकरणों साधनों से व्यापक अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक हित भी जुड़े हैं। यहां तक कि ब्रिटेन या अमेरिका की कुछ कंपनियां अपने देश में अस्वीकृत सामान भारत में टिका देती हैं। हाल में एक अमेरिकी कंपनी को घुटने - कूल्हे आदि के ऑपरेशन के साथ कृत्रिम अंग लगाए जाने में गड़बड़ी पाए जाने पर अमेरिकी अदालत से प्रभावित लोगों को अरबों डॉलर चुकाने पड़े और हरेक को करोड़ों में भुगतान करना पड़ा, जबकि भारतीय पीड़ितों को निर्धारित एक करोड़ रुपये के बजाय अब तक केवल 25 - 25 लाख रुपये दिए गए और मामला भारतीय अदालत में अटका दिया गया है। आपको यह पढ़कर आश्चर्य होगा कि जिस जर्मनी में होम्योपैथी की खोज करने वाले जन्मे, वहां मेरे जर्मनी निवास के समय सरकारी बीमा व्यवस्था में होम्योपैथी को मान्यता नहीं थी। अब जर्मनी ही नहीं ब्रिटेन, यूरोपियन देशों और अमेरिका अफ्रीका में भी नए पुराने नामों से आयुर्वेदिक और होम्योपैथी दवाइयों को मान्यता मिल गई है। भारत और एशिया में यूनानी दवाइयों के भी लाभ पाने वालों की संख्या करोड़ों में होगी।

विडम्बना यह है कि हर वर्ष दिवाली से पहले धन्वन्तरीजी की पूजा करने या जरूरत पड़ने पर वैद्यों अथवा प्राकृतिक चिकित्सा केंद्रों पर जाने वाले अधिकांश मंत्री, अधिकारी भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के प्रोत्साहन, अनुसन्धान, चिकित्सा केंद्रों के अधिकाधिक खोलने, आयुर्वेद के अनुभवी डॉक्टर-वैद्य तैयार करने को कभी प्राथमिकता नहीं देते। यह देख सुनकर आश्चर्य होता है कि अटल सरकार से लेकर मोदी सरकार तक नया आयुष मंत्रालय बना - सीमित बजट भी रखा, लेकिन वित्त मंत्रालय केवल खानापूर्ति लायक धनराशि देता है। मंत्रालय के सचिव तक पुराने अधिकारी नहीं बल्कि राजस्थान के प्रतिष्ठित वैद्य हैं। फिर भी धन तो वित्त मंत्रालय देगा। 1995 में सूरत शहर में प्लेग फैलने पर केंद्र की नरसिंह राव सरकार के सहयोग से बड़े पैमाने पर आयुर्वेद दवाई, धुप से हवन आदि का उपयोग कर आगे बढ़ने से रोकने में सफलता मिली थी। इसलिए आज कोरोना वायरस के कहर के वैश्विक संकट में भी आयुर्वेद के विशेषज्ञों की परीक्षा सी है। हां उसके अनुसन्धान कार्य के लिए समय और योग्य विशेषज्ञों की जरूरत होगी। यों आयुर्वेद के जरिये रोग से लड़ने की प्रतिरोधक दवाइयों और उपायों को तो प्रचारित प्रसारित किया जा सकता है। असाध्य और सर्वाधिक संकट के दौर में भारतीय ज्ञान विज्ञान का उपयोग कुछ तो काम आ सकता है।

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार, लेखक हैं और कई अखबारों के संपादक रहे हैं)

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